_मेहनत से उठा हूँ, मेहनत का दर्द जानता हूँ,_
_मेहनत बढ़ी तो किस्मत भी बढ़ चली,_
_कुछ पाया पर अपना कुछ नहीं माना,_
_बेवक़्त, बेवजह, बेहिसाब मुस्कुरा देता हूँ,_
_आसमाँ से ज्यादा जमीं की कद्र जानता हूँ।_
_लचीला पेड़ था जो झेल गया आँधिया,_
_मैं मगरूर दरख्तों का हश्र जानता हूँ।_
_छोटे से बडा बनना आसाँ नहीं होता,_
_जिन्दगी में कितना जरुरी है सब्र जानता हूँ।_
_मेहनत बढ़ी तो किस्मत भी बढ़ चली,_
_छालों में छिपी लकीरों का असर जानता हूँ।_
_कुछ पाया पर अपना कुछ नहीं माना,_
_क्योंकि आखिरी ठिकाना "में" मिटटी का घर मानता हूँ।_
_बेवक़्त, बेवजह, बेहिसाब मुस्कुरा देता हूँ,_